अनगढ़ पत्थर : बयान-ए-हकीकत
*डॉ.कर्मानंद आर्य
वस्तुतः
कविता कवि की जीवनदृष्टि और उसके समग्र जीवनानुभव का एक अद्भुत संसार निर्मित करती
है. कभी-कभी तो कविता बीहड़ इलाकों में ले जाती है. कवि
हीरालाल काव्यालोक का ऐसा ही एक बीहड़ क्षेत्र रचते हैं. उनके कविता संग्रह ‘अनगढ़
पत्थर’ की सम्पूर्ण कवितायेँ बयान-ए-हकीकत ही हैं. यथार्थ के जिस लोक की रचना वे
करते हैं वहाँ एक सामान्य कवि का पहुँच पना संभव नहीं है. उनका काव्यलोक वंचना के
उस लोक तक जाता है जहाँ आभाव है, पीड़ा है, समाज में फिट न बैठ पाने की बेचैनी है. उनके
इलाके कभी निर्जन नहीं होते. उनकी कविता में कलियों के चिटकने से लेकर पत्तियों के
झरने तक की आवाजें है दिखाई देती हैं. उनकी कविताओं में हर्ष करूणा क्रोध आवेग सब कुछ अपनी गूँज छोड़ता हुआ दिखाई देता है. हीरालाल
की कविताओं से गुजरते हुए यह विश्वास होता है कि सौन्दर्य केवल वहीं नहीं है जो
ऊपर से सुन्दर दिख रहा होता है अपितु वे वहाँ भी सुन्दरता ढूंड लेते हैं जहाँ
कलाप्रेमियों की दृष्टि थम जाती है. कविता के संसार में सौन्दर्य की खोज वैसे ही है
जैसे फूलों के भीतर खुशबू हवा-पानी और
कांटे भी साथ रहते है. रचनाकार की जीवन-शैली वैचारिक
चिन्तन और युगीन परिवेश रचना-संसार में मिलता है तो यह रचनाकार की उत्कृष्टता का
प्रमाण है. काव्य-यात्रा के व्यापक कर्मक्षेत्र से यह भी प्रमाणित होता है कि कवि
की ऊर्जा बहुआयामी है तथा उसके क्रमिक विकास की द्योतक भी. कविता की संक्षिप्त
भूमिका में वे अपनी कविता का आलोक रचते हुए उसकी प्रासंगिकता बताते हैं-
बन जाएँ ठोकर पाओं की
ये नहीं राह के पत्थर हैं
घायल कर दें जो तन मन को ये नहीं हाथ के पत्थर हैं[1]
ये हाथ के वे पत्थर हैं जो शरीर नहीं मन पर प्रहार
करते हैं. विचारधारा रचनाकार के लिए दृष्टि का काम करती है. विचार विहीन अथवा
उद्देश्य विहीन साहित्य को उत्कृष्ट
साहित्य नहीं कहा जा सकता. साहित्य केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं लिखा जाता अपितु उसके कुछ उद्देश्य भी होते है. काव्य की सर्जना
करते हुए वे अपने उद्देश्य भी बताते हुए चलते हैं:
वर्जित की करता बात नहीं चर्चित की चर्चा करता हूँ
अर्थहीन कोई बात नहीं मतलब की चर्चा करता हूँ.[2]
अपने
इस महत् उद्देश्य की पूर्ति हेतु साहित्यकार को किसी न किसी विचारधारा से आश्रय ग्रहण
करना पड़ता है. संसार में व्यक्ति संघर्षों के दौर से गुजरता रहता है. इस दौर में
उसे कुछ व्यक्तियों के जीवन से प्रेरणा भी मिलती है और वह संघर्ष पथ पर अपराजेय
इच्छा शक्ति के सहारे आगे बढता रहता है. कवि को संसार के प्रत्येक प्राणी की चिंता
है. गाँव की उनकी चिंता कैसे उनके काव्य में स्थान पाती है :
उन गांवों के / जो सालाना सूखे में सुख गए /
नदियों की बाधों में डूब गए /
और जो बचे/ पड़ोसी थे बड़े शहरों के/
उनको दफनाया / नए-नए उपनगरों ने[3]
प्रत्येक
मनुष्य के जीवन में कोई न कोई प्रेरणा-स्रोत अवश्य रहता है और प्रेरक व्यक्तित्व
के प्रति वह अपनी श्रद्धा को विभिन्न उपादानो के माध्यम से प्रदर्शित करता है. इसी
प्रकार हीरालाल ने भी अनेक महापुरुषों से प्रेरणा ग्रहण की है और ये महापुरुष ही
उनके प्रेरणा-स्रोत है परन्तु उनमें भी गाँधी जी के प्रति उनकी असीम आस्था है. उसके
काव्य में तत्कालीन सामाजिक राजनीतिक सांस्कृतिक परिवेश की झलक देखने को मिलती है. जो केवल
अपने साहित्यिक उत्कर्ष में ही सदैव मग्न रहते हैं उनका महत्व न तो साहित्य में
होता है और न समाज में. इसके विपरीत वे जो औरों को उठाने में अपनी शक्ति एवं
प्रतिभा लगाते हैं उनके उत्कर्ष से अपना और
साहित्य तथा समाज का कल्याण समझते हैं. समाज सबकी सहभागिता का प्रतिफलन है. जहाँ
आदर्श बहुत बड़े होते हैं वहाँ उसको निभाने वाले भी बड़े लोगों की जरुरत हमेंशा रहती
है :
महानताओं और /
ऊँचाइयों के इस देश में /
क्या कर सकेंगे बौने[4]
कवि
हीरालाल जीवन का ऐसा ही अद्भुत बिम्ब अपने कर्म में भी रखते हैं. वे प्रथम श्रेणी
की सेवा करते हुए लोगों के दुःख दर्द को बहुत गहरे अनुभूत किया था. कवि समाज में व्याप्त विसंगतियों अच्छाइयों बुराइयों
आदि का अनुभव करता है.
अपने
समाज को जागरूक सचेत मर्यादित और मौलिक बनाए रखने में ही उसका महत्व निहित
होता है. यह कार्य अपनी भाषा के साहित्य से असंपृक्त होकर कदापि नहीं किया जा सकता.
किसी भी समस्या का सामाधन वर्णवादी या साम्प्रदायिक होकर नहीं अपितु मानवतावादी होकर ही किया जा सकता है. धर्म
हमेंशा निर्णायक की भूमिका में रहता है. धर्म का जब क्षरण होता है तो समाज विनाश
को प्राप्त हो जाता है. वे लिखते हैं की ;
धर्म की बस्ती में
उन्माद का उत्पात
रह-रह कर उठा देता है
बेरहमी के हाथ[5]
कवि
साहित्यकार का उद्देश्य किसी बनी-बनाई विचारधारा का प्रचार मात्रा नहीं होता. उसे विषय के अनुकूल नए-नए विचार प्रस्तुत करना भी होता है.
साहित्य व्यक्ति के अन्तर्मन की टीस है साहित्य
समाज की कराहती वेदना है जिसके उद्गम का स्थल हृदय होता है. समाज में व्याप्त
बुराइयों व आदर्श लक्ष्यों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है. साहित्य को आत्मसात
कर साहित्यकार समाज की यथास्थिति से भलीभाँति अवगत हो जाता है. उनके प्रतिमान हमें
गहरे तक भेदते हैं. उनके प्रतीक शब्दों की बानगी का सृजन करते हैं. बयान ए हकीकत
उनकी रचनाओं की जान है. उनके बिम्ब का एक अद्भुत नमूना यहाँ द्रष्टव्य है :
रक्त/ या/ अनुरक्ति के संबंधों का/
अनुबंध पत्र/ जब स्वार्थ ग्रस्त और/
जिद्दी अपेक्षाओं की अतुष्ट खींचतानी में /
दूध की तरह फट जाता है /
तब वह न पानी रहता है/ न दूध रह जाता है /
हो जाता है व्यर्थ/
नहीं रह जाते संबंधों के अर्थ[6]
आज
मानवता सामाजिक और पारिवारिक मनोमंच पर लगातार टूटकर बिखर रही हैं. हर तरपफ असंतोष
की ज्वाला धधकती हुई दिखाई दे रही है. विद्यार्थी किसान पूँजीवादी समाज शासन प्रशासन राजनीति इत्यादि सभी क्षेत्रों में आपाधापी की
पराकाष्ठा है. दैवी आपदाएं निरंतर मानव अस्तित्व को चुनौती दे रही हैं. उनकी कविता
यथार्थ का यही व्यंजना करती है :
यह दैवी आपदाओं / और /
विभीषिकाओं का महादेश है/
कहाँ तक रोयेंगे / हम और आप[7]
आज
संवेदनाएं सूख रही हैं और बाजार पनप रहा है, मनुष्य के लिए उपस्थित इस संकट काल में कविता जन आंदोलनों
से प्रभावित होकर लोकतंत्रात्मकता की ओर झुकी है।
कवि
समाज के निम्न एवं उपेक्षित वर्ग के साथ खड़ा है और स्वयं को सेतु बनाता है. वह
सेतु नहीं जो भाव-विलास और कल्पना लोक का होता बल्कि जो श्रम और पसीने से तैयार
होता है. कवि ने समाज के मेहनतकष मजूदर वर्ग को नई प्रेरणा देजैसे कर अपना सामाजिक
दायित्व निभाया है. किसी भी साहित्यकार को जानने के लिए उसके सृजन-संसार का अध्ययन
एवं विष्लेशण पूर्णतया अनिवार्य है. उसका रचनात्मक संसार उसके जीवन के बारे में
विषेश सामग्री उपलब्ध करा सकता है. क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण होता है. इसलिए
उसकी रचनाओं में तत्कालीन युगबोध अवष्य झलकता है. उनसे साहित्यकार का व्यक्तिगत
दृश्टिकोण भी स्पश्ट हो जाता है. वह अपने परिवेष से संस्कारों और सत्यों को अपने
में आत्मसात् करता है फिर वहीं विचार वही तत्व
उसके अन्तर्जगत् से छन कर रचना के रूप में उतरते है.
गरीब दलितों की/ पिछड़े मजदूरों को /
आर्थिक नहीं सामाजिक न्याय की गारन्टी/
दिलाई जायेगी/
और जुल्मों सितम की/
आग बरसाती तेज धूप से/ बचने के लिए /
उनके झोपड़ों पर /
छत्री इंसाफ की लगाई जायेगी[8]
आजाद हुए भारत को साम्प्रदायिक ताकतों ने बांटकर
जनता के आजाद स्वप्नों को अधूरा सा कर दिया. इस हिंसा और टूटन के दौर में जो
साहित्य रचा उसका उद्देश्य सहिष्णुता से समतामूलक समाज की स्थापना था. जिसमें सभी
समान और स्वतंत्र हों. राजनैतिक सामाजिक सांस्कृतिक
और आर्थिक मूल्यों के स्तर में हो रहे परिवर्तन के प्रति दोनों ही सक्रीय एवं
संवेदनषील होते हैं. परन्तु दोनों की कार्यषैली के आधार पर परिस्थितियों के आधार पर और अभिव्यक्ति के आधार पर कुछ
अंतर अवष्य ही स्पश्ट हो सकते हैं. आज राजनीति एक ऐसी सच्चाई बन चुकी है जिससे दूर
रहकर न साहित्य रचा जा सकता न कलाएं अर्थ ग्रहण कर सकती और न ही सामाजिकता का
निर्वाह किया जा सकता है. साहित्यिकार ने इन चालों को खूब परखा है और ऐसी भूमि
तैयार करने में सफलता हासिल की है जिस पर चलकर रचनाशीलता अपना प्रभावी रूप ले सकी.
कोरे आदर्शों और नारों से समाज नहीं चलता न
ही गरीबी, बेरोजगारी का अंत होता है. इन सब समस्याओं से निजात पाने के लिए जन-जन
की भागीदारी अनिवार्य है. विपन्नता के गर्त में सदियों से पद-दलित शोषित और उत्पीडि़त है आजादी उसके लिए एक कागजी फूल है.
उनकी कविता सारे बंधों का शमन करती है :
सरहदें/ सुरक्षित है खतरों से/
इसलिए / सरहद के कटीले तार/
अब / गांवों में आयेगे / और /
करेंगे हदबंदी[9]
कवि
समाज के विघटन से बहुत खिन्न है. उन्नीसवीं सदी के बाद सूचना-प्रौद्योगिकी के
क्षेत्र में नए युग का सूत्रपात हुआ और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान सूचना क्रांति के विस्फोट और सरकार की उदारता की नीति
का दुष्प्रभाव जन-जन के चेहरे पर देख सकते हैं. इस दौर में कलाओं और साहित्य का
मान घट रहा है सांस्कृतिक मानमूल्य बदल गए
हैं. आज हम ऐसे विश्व-बाजार में खड़े हैं जिसमें रूपये के लिए चारों तरफ अंधी दौड़
है. हमारी संवेदनाएं और सरोकार पीछे छूट रह हैं. भाषा संस्कृति समाज पर चैतरफा आक्रमण हो रहा है. लोक संस्कृति लुप्त
होने के कगार पर है कृषि और किसानी संस्कृति
हाशिए पर अंतिम सांसें गिन रही है. नारी चेतना और स्वतंत्रता नए-नए विमर्शों में
भटक गयी है. लघु उद्योग प्रायः समाप्त हो गए है. सामाजिक सम्बन्धों के अर्थ बदल गए
है. उस समय उनकी कविता घोषणा करती है कि :
खाली हथेली पर
सरसों क्या उगती नहीं घास
हो उसपर दमदार रिश्वत
की पकी हुई पांस
तो सरसों क्या उग आते हैं
ऊँची पहुँच के लम्बे बांस[10]
हिन्दी
अपनी राष्ट्रभाषा है परन्तु संवैधानिक तौर पर केवल राजभाषा है. यह आज तक उपेक्षाओं
की शिकार रही है. जो अधिकार इसे मिलना चाहिए वह नहीं मिला. अंग्रेजी भाषा ने इसे
बार-बार हाशिये पर लाने का प्रयास किया है. यह तो हिन्दी भाषा की सार्थकता और
वैज्ञानिकता है कि यह आज विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है. बटरोही जी
हिन्दी के उज्ज्वल भविष्य की ओर देख रहे हैं और एक बहुत ही सार्थक प्रश्न उठाते
हैं- ‘आजादी के बाद हाशिये के
लोगों को अपनी आवाज मिली जो उनकी
मुख्य भाषा के रूप में उभरने लगी. वे अपनी कविता में भाषा का भी प्रश्न उठाते हैं.
उनके
काव्य का मंतव्य है कि जीवन का सही अर्थ ढूंढने के लिए स्वतंत्र व्यक्तित्व की खोज
अनिवार्य है. ‘‘हर व्यक्ति एक अद्वितीय
इकाई है और हर कोई जीवन का अंतिम दर्शन अपने जीवन में पाता है अन्य किसी सीख में नहीं.’’ व्यक्ति का अपने प्रति
दायित्व प्रथम है और समाज के प्रति उसी से उत्पन्न होता है. समता उसी समाज में हो
सकती है जो स्वतंत्र हो और वही समाज स्वतंत्र होता है जिसका अंग व्यक्ति स्वतंत्र
हो और अपने स्वातंत्रय के उपयोग के लिए सामाजिकता का वरण करता हो.उनका काव्यालोक
सृजन की उस भूमिका को गढ़ता है कि :
अगर न होते / ये कंधे / कौन उठाता /
छोटी सी जिन्दगी का/ पहाड़ सा बोझ/
और पहुंचता मरघट तक/
परिचित और बहुचर्चित मुर्दों को[11]
साहित्यकार
स्वयं मूल्यों का सृष्टा है. इसी कारण सृजनपक्ष भी विस्तार पाता है. यह स्वाधीनता
का ही मूल्य है जो अन्य प्राणियों में सर्वोत्तम कहलाता है. बुनियादी स्वाधीनता
ऐसी नहीं है कि जीवन की परिस्थितियों पर सामाजिक
व्यवहारों आर्थिक सुविधाओं राजनीतिक पदों पर निर्भर करे. इसे केवल एक चीज की
आवश्यकता है वह है- केवल ‘मानवत्व’. ‘प्रासंगिकता
का प्रश्न’ लेख में अज्ञेय लिखते हैं- ‘‘मानव पहला स्वाधीन पशु है और स्वाधीन होने के नाते पशु
नहीं है. मानवेत्तर प्राणियों के जीवन की चरम संभावनाएं उनकी शरीर संरचना से
मर्यादित हैं. मानव पहला प्राणी है जो भाषा पाकर अवधारणा
की शक्ति पाकर प्रतीकों का सृष्टा होकर
पूर्व कल्पना से परे चला गया है असीम और
अकल्पनीय संभावनाओं से सम्पन्न हो गया है- परोक्ष सत्ता से जुड़ गया है स्वाधीन हो गया है.’’
आज
हमारी दिनचर्या सामाजिक शिष्टाचार धार्मिक आस्थाएं आपसी
संबंध यहां तक कि हमारे उत्सव मनोरंजन बच्चे के खेल तक में जिस संस्कृति का परिचय मिलता है
वह सब नकली और प्राणहीन है. उसमें सृजनात्मकता का अभाव है. आज हमारे सामने एक
व्यापक और आधारभूत प्रश्न है कि अपनी श्रेष्ठ और प्राचीन संस्कृति व अवयवों को
कैसे बचाया जाए? जबकि भौतिकवादी युग की
नव्यता हमारे सिर चढ़कर बोलती है. हमें अपनी इतिहास संबंधी धारणा को बदलकर उसकी
तथाकथित वैज्ञानिकता को छोड़कर उसे मानवीय और सृजनात्मक आयामों में रखने का साहस
करना चाहिए. उनकी कविता उन प्रश्नों का जबाब देती हुई कहती है कि :
गर्भ के अँधेरे में ही / घुट कर मर जाने का /
भ्रम/ जिसका टूटा है /
वही अंकुर तो अभी फुटा है[12]
आज
यांत्रिकता की वृद्धि से हमारी संस्कृति पर काफी प्रभाव पड़ा है बढ़ते संचार साधनों औद्योगिकरण मीडिया के बदलते तेवर ने हमारे समाज हमारी जीवन- शैली और हमारे मूल संस्कारों में बड़ा
अन्तद्र्वन्द्व पैदा कर दिया है. आज हमारा नजरिया हर वस्तु और सम्बन्ध के प्रति
लाभ कमाने का हो गया है. यह हमारे संवेदन का हृास है.
वास्तव
में अच्छा खाना-पीना सुन्दर वस्त्र आभूषण धारण
करना और उत्तम आधुनिक तकनीकी के मनोरंजन संचार
या यातायात के साधनों का प्रयोग करने को आधुनिकता नहीं कहा जा सकता. प्रत्येक
पुरानी परम्परा त्याज्य और नई वस्तु और धारणा ग्राह्य नहीं होती. वैचारिक
प्रगतिशीलता और परिस्थितिगत संवेदन का बदलाव और विकास की आधुनिक होने की प्रक्रिया
है. उनकी कविता उन ग्रामीण जनों तक भी पहुँचती हैं जो शहरों में आकर कहीं खो जाते
हैं :
झुण्ड के झुण्ड / चले आते हैं/
करने जीना हराम / गुप चुप बतियाती गलियों में /
चीखते हैं चिल्लाते हैं /
चिकनी चौड़ी सड़कों पर चल नहीं पाते हैं[13]
समानता
के बोध तक पहुँचते-पहुँचते हम काल की यथार्थता का बोध खो बैठते हैं. सनातन की
भावना लम्बी काल परम्परा की भावना नहीं है; काल
की अर्थायता की भावना है. इसी तरह स्वीकार की भावना भी दुःख दैन्य अत्याचार यहां तक दासता के स्वीकार की भावना में परिणत
हो जाती है. इस प्रकार आज भारतीयता के मूल में जो भावनाएं है उनमें मानवीय
अस्तित्व नगण्य और जीवन के प्रति अवज्ञा का पाठ मिलता है.
मानव
समाज में राजनीति और जीवन-मूल्यों की पारस्परिक निर्भरता प्राचीन काल से ही चली आ
रही है. अतीत के अनुभव हमें बतलाते हैं कि उत्पादन के साधन साथ ही सत्ता पर अध्किार रखने वाला वर्ग ही सदैव से
बुद्धिजीवियों कलाजीवियों व अन्य संस्थाओं
पर अपना नियंत्राण रखता आया है. इसी नियंत्राण के आधर पर प्रायः वह अपने आदर्श सिद्धान्त व विचारों के अनुरूप मूल्यों का सृजन प्रचार व प्रसार कराने का प्रयत्न करता है. अतः
राजनीति समाज के जीवन-मूल्यों के सृजन का एक घटक है. कवि को यह चिंता कचोटती है.
वह/ अपनी ही / व्यवस्था का दर्द/
जब भोगते हैं /
चिंतक मुक्तिबोध् हमेशा एक सवाल करते थे कि
पार्टनर! तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? या
पार्टनर पहले अपनी पॅालिटिक्स साफ करो. यह विचार उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और
निष्ठा को व्यक्त करता है. यही निष्ठा साहित्यकार का सबसे बड़ा मूल्य है. दुनिया
में एक सोच साहित्य की स्वायत्तता को स्वीकारने वाली रही है. इसी प्रकार का प्रश्न
कवि हीरालाल भी करते हैं. जवाहर लाल नेहरू ने ‘संस्कृति
के चार अध्याय’ की प्रस्तावना में लिखा है
कि ‘यह मानना तो ठीक है कि
आर्थिक उन्नति जीवन और प्रगति का बुनियादी आधर है लेकिन
जिन्दगी वहीं खत्म नहीं होती वह आर्थिक
विकास से कहीं ऊँची चीज है’’ आज
के इस अर्थ प्रधन युग में जिस द्रुतगति से ‘जीवन-मूल्य
बदलते जा रहे हैं. वे अर्थ को सर्वस्व तो नहीं पर इतना अवश्य सिद्ध कर रहे हैं कि ‘अर्थ’ के
बिना मनुष्य एक प्रकार की ‘अर्थहीन’ संज्ञा का पात्रा बनता जा रहा है. उसी अर्थ की कैसे
बन्दर बाँट समाज में धड़ल्ले से होती है :
नेता ने
धिक्कारा
“शर्म नहीं आती है”
हर काम में भूख आड़े आती है[15]
उनकी कविताओं में
समाज की समकालीनता जो जगह मिली हुई है. समकालीन शब्द की विवेचना परम्परा और इतिहास
के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट
कालखण्ड में नए सिरे से तथ्य की
पहचान और परख के रूप में की जाती है यह कवि का ध्येय रहा है. समकालीन कविता का
विश्लेषण साहित्य के भीतर निहित उस मूल तत्त्व की प्रतीति एवं प्रवृत्ति के रूप
में माना गया है जो मनुष्य के बीच भेदभाव घृणा संकीर्णता
आदि के परित्याग की प्रेरणा देती है जो कवि की भी प्रेरणा भी है.
समकालीन कविता एक
रचनात्मक विरासत है समृद्ध
विचारशील मस्तिष्क की उपज है जीवनानुभव
और भावनाशील आक्रोशित आवेशित
उद्वेलित मन की सबल सटीक
व सचोट अभिव्यक्ति है. इसमें प्रयुक्त भाषा की धार पैनी है. यह आदर्श और यथार्थ के
बीच सेतु बनाती है. समकालीन कविता कल के यथार्थ को आदर्श को स्वप्न
को साकार करने की वह शब्द यात्र है जो मानवता को अनुगामी मानती है. कवि हीरालाल ने
कविता में युग एवं परिवेश से संपृक्त हमारी आशा निराशा आकांक्षा अपेक्षा राग विराग हर्ष
विषाद राजनीतिक और आर्थिक
दिशा में अस्थिरता समस्याओं
व चुनौतियों से यातनापूर्ण संघर्ष मन
के भीतर का अलगाव असंतोष आक्रोश अस्वीकृति विद्रोह की छटपटाहट
बहुत स्पष्ट रूप से उभारा गया है. वैश्वीकरण के कारण मंडराते खतरों भ्रष्टाचार के
मुद्दों मशीनीकरण के कारण
उपजा सांस्कृतिक संक्रमण तथा दलित व स्त्री विमर्श की चिन्ताओं जैसे मुद्दों को
तल्खी से रेखांकित किया है :
नेता ने समझाया
“हम भी तो भूखे हैं”
लेकिन पेट नहीं दिखाते हैं
डुगडुगी बजाते हैं[16]
अपने चारों ओर फैली
भूख गरीबी अन्याय इंसान की इंसान के
साथ ज्यादतियों का कच्चा चिट्ठा परत दर परत खोलता जाता है. उसकी चिंता सम्पूर्ण साहित्य
की चिंता है. वह परिवर्तन कामी उस प्रभामण्डल का रचाव करना चाहता है जिसमें सामाजिक जीवन
में घूसखोरी समाप्त हो सके कालेधन
के कारण नैतिक मूल्यों का क्षरण रुक सके इंसान पर पतन का काला मंडराता साया समाप्त हो सके.
लातों और घूसों की जबाबी मार
भद्दी गलियों की फूहड़ बौछार
निकल कर
गन्दी गलियों और बस्तियों से पहुँच गई
वातानुकूलित चौपालों और सभागारों में[17]
समय-समय पर होने
वाले परिवर्तनों से प्रकृति के अन्यान्य उपक्रमों के साथ साहित्य तथा कला भी
निश्चित रूप से प्रभावित होते हैं. परिवर्तन तथा विकास की प्रक्रिया के कारण ही
हमें इतिहास के अध्ययन में युगानुरूप भिन्नताएं देखने को मिलती हैं. ये भिन्नताएं
देश काल तथा
परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग रूप में सामने आती है. लेकिन सामान्य क्षेत्रों की
बजाय साहित्य एवं कला के क्षेत्र में यह विकासशीलता भिन्न प्रकार की होती है. कवि
हीरा लाल के काव्य में ये चहुओर दिखाई भी देती है.
जब दुनिया एक
ध्रुवीय हो गई है. अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी पूरी दूनिया के नक्शे पर मार्च कर रही है
लेकिन श्रम के मार्च पर सैंकड़ों पाबन्दियाँ हैं. सभ्यताओं के तमाम विकास के
बावजूद जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धांत ही एक मात्र सिद्धांत है. मुनाफ़ाखोर
पूंजी केवल युद्धों को ही जन्म नहीं दे रही है बल्कि बेरोज़गारी और ग़रीबी को भी विस्तार दे रही है
प्रजातन्त्र भ्रष्टतन्त्र हो गया है. आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर देश अन्तर्राष्ट्रीय
पूंजी के दलाल की भूमिका में आ गए हैं संयुक्त राष्ट्र संघ शक्ति हीन हो गया है .
अब वह भी आर्थिक रूप से सम्पन्न देशों की रखैल-सा व्यवहार कर रहा है. पूंजी के
नेतृत्व में विघटनकारी शक्तियों धार्मिक व जातीय उन्माद फैलाकर आतंक की रचना कर
रही है फिर उसी आतंकवाद को समूल नष्ट करने का दम भी भरती है. पूंजी के प्रभुत्व
प्रभावशाली मिडिया लोगों की चेतना को उपभोक्तावाद और चरम भोगवाद की ओर मोड रहा है. कवि का मानना है कि ऐसे कष्ट तो उठाने ही होंगे:
यह सच है कि/ एक रही का धर्म है चलना/
लेकिन चलने के लिए /
जरुरी नहीं है चिलचिलाती धूप और/
तपती रेट में जलना[18]
स्वार्थो ने हमारे
पारावारिक व सामाजिक जीवन की सामुदायिकता को समाप्त कर दिया है मनुष्य को आत्महीन
व विचारहीन करने का पूरा प्रयत्न चल रहा है विकासशील देशों के शोषण से वहाँ ग़रीबी अशिक्षा और बीमारी
का साम्राज्य फैल रहा है. राजनीति और ब्यूरोक्रेसी का भ्रष्टतन्त्र धर्म अर्थ और अपराधजगत के
साथ मिलकर दमन तन्त्र बन गया है न्यायतन्त्र की विफलता की चर्चा अब आम हो गई है. ऐसे
में कवि हीरालाल उन यथार्थ को कविता का हिस्सा बनाती हैं जो अभी विकास के माडल में
पिछड़ी हुई थी. कवि का कविता संग्रह “अनगढ़ पत्थर” सुघड़ पत्थरों में तब्दील हो गया
है.
डॉ.कर्मानंद आर्य,
सहायक प्रोफ़ेसर,
भारतीय भाषा केंद्र
बिहार केन्द्रीय
विश्वविद्यालय, पटना
Mo-08092330929,9236544231
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