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सोमवार, 11 मार्च 2013

मित्रो यह मेरी पहली व्यंग्य रचना है आप इसे हलके में न लें. पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया से परिचित कराएँ. डॉ कर्मानंद आर्य 

मेरे मरने के बाद

आज मुझे धूमिल बहुत याद आ रहे हैं. वे समाज से बहुत निराश थे. वैसे अधिकतर कवि लेखक अपने समय से निराश ही होते हैं. आप पूरा हिंदी साहित्य का पारायण करके देख सकते हैं. असलियत खुदबखुद पता चल जायेगी. निराशा उनकी कविता का मूल विषय भले ही न हो पर उन्हें मरने की पूरी प्रक्रिया पता थी. इन्हें कहते है ज्ञानी पुरुष. वैसे तो मैं एक आम आदमी हूँ और पद प्रतिष्ठा के साथ मरना चाहता हूँ. मरने वाले के लिए पद प्रतिष्ठा बड़ी चीज नहीं होती है पर मेरा मामला थोड़ा सा अलग है. ऐसा करने के लिए हिन्दू शास्त्रों में कई पुराण लिखे गए हैं. आप सोचेंगे अजीब बेचारा है.अपनी बात की पुष्टि के लिए कहाँ-तक जाने को तैयार है. कुछ नहीं तो वेद-पुराण की बात तो बोल ही दो सब मान जायेंगे कोई देखने थोड़े ही जा रहा है. चाहे मुझे सेज पर रखी संस्कृत का एक हर्फ़ भी ना आता हो. पर मैं खुद को किसी पंडित से कम नहीं समझता.
मरने के लिए मेरी अपनी योजनायें हैं. ऐसी नहीं जैसे योजना आयोग में होती हैं लम्बी और दीर्घकालिक. जिसमे मरने के लिए भी लम्बा इन्तजार करना पड़े और जब मरने का समय आये तो अगली योजना आ जाए. साधारण तौर पर तो सारे लोग मरते हैं. कुछ लोगों का दावा होता है की वो जब से पैदा हुए हैं घुट-घुट कर मरते रहे हैं. कुछ काम करते-करते, कुछ फाइल उलटते पलटते, कुछ झाड़ू बुहारू करते. कुछ अपनी लुगाइयों के डर से, जैसा की मैंने पहले कहा मैं उन लोगों में नहीं ही होना चाहता. अरे मरना ही है तो शान से मरो जैसे हाथी मरता है, मिलिट्री के घोड़े की तरह थोड़े ही मरना है पिछवाड़े गोली खाकर.
मेरे मरने से राष्ट्रिय शोक भले ही न हो पर रोड पर जाम जरुर लगे. बेवजह कुछ लोग हो हल्ला काटें कुछ जुलूस की शक्ल में नगाड़े बजाएं. ज्यादा न हो तो स्कूल में इस नाम की छुट्टी तो हो ही जाए. बच्चे मजे करें और स्टाफ भी मौन के बाद यह अहसास करे की जो कुछ हुआ यह एक सामान्य घटना थी. इससे हमारा कोई लेना देना नहीं था. अब ऐसा भी न हो जैसे प्रेमचंद के मरने पे हुआ था. किसी ने कहा मास्टर मर गया इसी गली में रहता था. अब मास्टर जैसे जीव पर कौन ध्यान देवे. पर यह सामान्य सच नहीं है अभी हाल फिलहाल बिहार प्रदेश में ऐसी घटना घटी, सरकार ने खूब ध्यान दिया. मास्टर मांग कर रहे थे की उन्हें चपरासी का वेतन दिया जाए. सरकार कह रही थी पहले अपने भीतर कुव्वत पैदा करो. अपनी पढाई-लिखाई सुधारो. जिन लोगों ने कभी कालेज का मुह भी ठीक से नहीं देखा उनके पास भी बड़ी-बड़ी डिग्रियां हैं. सरकार सब जानती है. उसे खोट के सारे रास्ते पता हैं. इस मामले में वह अपने से आगे किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकती. उसे पता है किसकी नब्ज कब धडकती है. दर दर भटकने वालों को मुह क्या लगा लिया वो भी सरकारी दामाद होने की कल्पना करने लगे. सूचना का अधिकार मांगते हैं. उन्हें क्या पता सूचना आयुक्त सरकार का रिश्तेदार है और मान लो सूचना ले भी ली तो क्या उखाड़ लेंगे. उस सूचना की बत्ती बनाकर क्या उजाला फैलायेगे.
मरने के भी अपने फायदे हो सकते हैं यदि हम योजनाओं के साथ मरें. कभी कभी सोचता हूँ यदि मैं पुत्तर प्रदेश में कोई आला पुलिस अधिकारी होता तो कैसे मरता. मैं या तो किसी बाहुबली से पंगा लेता. उसे अपनी औकात दिखा देता की मैं पांच फुट चार इंच का निर्जीव इंसान नहीं. मेरी भुजाओं में वीर अब्दुल हमीद का खून दौड़ता है. सब कुछ तुम्हारे हिसाब से ही नहीं हो सकता. जहाँ मैं नौकर हूँ वहां तो प्रजातंत्र कायम करना पड़ेगा. आजादी के बासठ साल हो गए. अब तुम ठीक से राजा भी नहीं हो. बुआ जी की सारी बातें एकदम सही हो रही हैं. अब मैं मर भी जाता तो मेरी पत्नी मेरा वाला पद सरकार से मांगती. वैसे सरकार किसी भी हद तक जा सकती है अपने घर से कुछ थोड़े ही जा रहा है. वैसे सरकारी नौकरियों में बीस प्रतिशत से ज्यादा पद मृतक आश्रितों के हैं. उनमें से भी अधिकतर बाबुओं के लिए हैं. भला हुआ की मैं कोई दलित नहीं हूँ नहीं तो मेरी पत्नी के लिए चपरासी का पद आरक्षित होता. कुछ पद जाति के हिसाब से भी आरक्षित होते हैं जैसे ट्रेन में नीचे वाली वर्थ सीनीअर सिटिजन के लिए.
भगवान् जो करता है अच्छे के लिए करता है. अब जब मरने की योजना मन में आ ही गई है तो भगवान् को क्या दोष देना. अखबार पढ़ा तो बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था दिल्ली में शीला के बेटी सुरक्षित नहीं. अजीब मामला है जब दिल्ली में उनकी बेटी ही सुरक्षित नहीं तो दूसरी बेतिओं का क्या होगा जो नार्थईस्ट से आई हैं. मन बिचलित था आज सुबह ही सोचा की थोड़ा टीवी देख लूँ शायद मरने के नये नमूने पता चले. लिपस्टिक में लिपटी हुई उद्घोषिका बता रही थीं की राहुल गाँधी शादी नहीं करना चाहते. मैं तो सुनकर दंग रह गया, आखिर कांग्रेस का क्या होगा. जिन लोगों ने शादियाँ नहीं की अक्सर उन्हें राज्यपाल बना दिया जाता है. इस दुर्घटना से तो प्रजातंत्र खतरे में पड जाएगा. आखिर कांग्रेस की विरासत कौन सम्हालेगा. जैसे अन्ना जी के अनशन का इस देश पर फर्क नहीं पड़ता तो मेरे मरने से ही दुनिया पलट जायेगी. कभी कभी अपने मन को कमजोर करके सोचता हूँ मरने से क्या होगा जीने की नई तरकीब ढूंढ़ता हूँ.

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