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सोमवार, 10 दिसंबर 2012

पिता


यह मैं जानता हूँ

की अभाव की पीड़ा में पथराये

पिता/ तुम्हारे सपने /कुंठित नहीं थे

और न ही थे मुरझाये हुए / कि दूबघास की तरह

उग आते बरसात आने पर

पर तमाम उम्र तक / उम्मीद से नहाई तुम्हारी आँखों ने

आखिर किया ही क्या था बकौल उनके

 

आज अभाव से जूझते

तुम्हारी नाउम्मीद आँखों में

वे सपने हरे नहीं / हरे हैं तो / जवानी के वे दिन

जिन्हें तुम बताते हो / न सुननेवाले को भी

सुनाकर हल्का कर लेना चाहते हो/

सदियों की पीड़ा को

इस पर तुर्रा है, कि गाँव तक पहुची इस पक्की सड़क पर

धुआं उगलते तुम्हारे बच्चे / विकास होने तक

बाजार की उठापटक से वाकिफ हो रहे हैं

और इक्कीसवीं सदी की सनसनी

सेंसेक्स देख रहे हैं नंगी आँखों से  

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