यह मैं जानता हूँ
की अभाव की पीड़ा में
पथराये
पिता/ तुम्हारे सपने
/कुंठित नहीं थे
और न ही थे मुरझाये
हुए / कि दूबघास की तरह
उग आते बरसात आने पर
पर तमाम उम्र तक /
उम्मीद से नहाई तुम्हारी आँखों ने
आखिर किया ही क्या
था बकौल उनके
आज अभाव से जूझते
तुम्हारी नाउम्मीद
आँखों में
वे सपने हरे नहीं / हरे
हैं तो / जवानी के वे दिन
जिन्हें तुम बताते
हो / न सुननेवाले को भी
सुनाकर हल्का कर
लेना चाहते हो/
सदियों की पीड़ा को
इस पर तुर्रा है, कि
गाँव तक पहुची इस पक्की सड़क पर
धुआं उगलते तुम्हारे
बच्चे / विकास होने तक
बाजार की उठापटक से
वाकिफ हो रहे हैं
और इक्कीसवीं सदी की
सनसनी
सेंसेक्स देख रहे
हैं नंगी आँखों से
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