समकालीन विमर्श : युवा दृष्टि और दलित लेखन
*डॉ. कर्मानंद आर्य
हिंदी दलित साहित्य का विधिवत सूत्रपात अस्सी के दशक में मराठी के प्रभाव से
हुआ. हमारे यहाँ जिस नवजागरण, पुनर्जागरण की बात की जाती है वह एक पक्षीय था और
उसमें एक बड़े वर्ग की हिस्सेदारी नगण्य थी. आजादी के बाद उपजी बंदरबांट में गरीब
और गरीब होता गया, रही-सही कमी उदारीकरण और भूमंडलीकरण ने पूरी कर दी. वस्तुतः आज
के इस दौर में सारे गरीब मुल्क दलितों की तरह इसके शिकार हैं. भूमंडलीकरण के इस
दौर में सारा संसार एक गाँव होता जा रहा है. इसी का परिणाम है की विगत दशकों में
दलितों में अस्मिता बोध जगा है. शिक्षा के कारण दलितों के आत्मविश्वास में इजाफ़ा
हुआ है. समकालीन दलित विमर्श उसी की उपज है. दलित साहित्यकार एवं दलित आदिवासी
साहित्य की उन्नायक रमणिका गुप्ता ने कहा है कि “ दलित साहित्य का ही भविष्य
उज्ज्वल है क्योंकि वह देवता और भगवान् नहीं, मनुष्य की बात करता है.[1]
समकालीन दलित लेखन व्यापक परिवर्तनकारी उद्देश्यों को लेकर चल रहा है वह जहाँ समाज
में सकारात्मक परिवर्तन करना चाहता है वहीँ पर वर्चश्ववादी अपसंस्कृति को उखाड़
फेकने का संकल्प भी उसके एजेंडे में शामिल है. यह एक ऐसे समाज की संकल्पना का
पक्षधर है जिसमें कोई किसी का शोषण न करे. किसी विशेष जाति को ही योग्य न माना जाय.
जाति, वर्ग, लिंग, रंग और धर्म के आधार पर कोई भेदभाव न हो. इन्हीं सब उद्देश्यों
की पूर्ति हेतु दलित साहित्य एवं लेखन निरंतर प्रयासरत है.[2]समय के सन्दर्भ में दलित लेखन
समग्रतः उपेक्षा का शिकार रहा. इसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा.
कई सवर्ण लेखकों ने दलित साहित्य का
उत्स बौद्ध साहित्य से माना जाता है. यह परंपरा नाथ और सिद्ध कवियों से होती हुई,
निर्गुण कवियों तक आई है.[3]
बीसवीं सदी का अंतिम दशक दलित साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता
है, क्योंकि इसी दशक में हिंदी दलित साहित्य ने अपना विधागत विस्तार किया. कविता,
कहानी, उपन्यास. आत्मकथा, निबंध, नाटक और आलोचना के क्षेत्र में ही नहीं अनुवाद और
शोध के क्षेत्र में भी काफी काम हुआ. दलित साहित्यकार की यह खूबी है की दलित
साहित्य का सौन्दर्य उसकी प्रहार क्षमता में निहित है. उत्पीड़न की चीखें कभी
सुन्दर नहीं होती हैं वे वेधक होती हैं. यह दलित साहित्य अब लगभग सभी भारतीय
भाषाओँ में लिखा-पढ़ा जा रहा है. प्रारंभिक दशकों में सवर्णों को अपना सिंघासन डोलता नजर आ रहा था.
सदियों की तरह दलित टोला बदहाल और लाचार था. सवर्ण लेखक की किसी भी समीक्षा, आलोचना या इतिहास की कृति में किसी दलित
लेखक का जिक्र पूरी तरह अनुपस्थित होता था. यह स्थिति नब्बे के दशक के पूर्वार्ध
तक चलती रही. कालांतर में सवर्ण लेखकों में भी जागरूकता पैदा हुई और उनकी सोच में
बदलाव भी आया है. जहाँ पूर्व में सवर्ण लेखक के लिए साहित्य के इतिहास में दलित
साहित्य के लिए कोई जगह नहीं थी वहां पर आज दलित साहित्य सबकी जुबान पर है. दलित
रचनाकार भी लिख-पढ़ सकता है यह सवर्ण हिन्दी साहित्य स्वीकार करने को तैयार नहीं था.
प्रमुख आदर्श विखण्डन की जगह सामंजस्य एवं
सम्पूर्णता को लेकर है।
दलित
चेतना शब्द ही नहीं वरन् एक दृष्टिकोण का परिचायक है और यह दृष्टिकोण करुणा, आपसी
भाई-चारा और समानता का विस्तृत फ़लक लिये हुए है, जो अपनी वर्गीय पहचान के लिए
सतत् संघर्षरत है। परिणामतः
समकालीन दलित रचनाजगत में दलित लेखकों की सक्रियता तीन क्षेत्रों में सामने आई.
अभी तक दलित साहित्य का दायरा आत्मकथा और कविताओं तक सीमित था पर अब साहित्य की शायद
ही कोई ऐसी विधा हो जिसपर दलित लेखक न लिख रहे हों. आज बड़े पैमाने पर रचनात्मक
साहित्य लिखा जा रहा है. विश्व के जिन राष्ट्रों ने औपनिवेशिक दासता की
गुलामी झेली है और जिन सामाजिक समूहों को सामंती-वर्णवादी पीड़ा झेलनी पड़ी है। ऐसी
परिस्थितियों में उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक अंतर सम्बन्धों की ज़्यादा मानवीय
व्याख्या प्रस्तुत की है। इसलिए वर्तमान का दलित लेखन, साहित्य
की निम्न वर्गीय अस्मिता की अभिव्यक्ति है और मेरी समझ में इसमें कोई दो राय नहीं
कि यह दलित लेखक हर तरह की संकीर्णता का निषेध चाहता है।
आज का दलित साहित्य धारा साहित्य की मुख्यधारा बन गई है.
निरंतर दलित लेखकों की कविताएँ और कथाकृतियाँ प्रकाशित हो रही हैं. आत्मकथाएं
तत्कालीन दौर का पूरा समाजशास्त्र हैं. जब दलित साहित्यकारों ने आत्मकथाएँ लिखीं
जिनमें उन जीवन स्थितियों की भयावह तस्वीरें थी. पहले के दलित लेखकों ने बड़े
पैमाने पर सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य में जाति व्यवस्था के अभिशाप के विरुद्ध
वैचारिक लेखन किया है और आज भी वही आक्रोश दलित साहित्य में दिखाई पड़ता है. हाँ,
आज का साहित्य समय से कहीं आगे चला गया है. हिन्दी की सभी विधाओं में यथा कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, समीक्षा, आलेख, शोध
ग्रन्थ, आत्म कथा, लेखन और पत्र सम्पादन पर्याप्त मात्रा में किये जा रहे हैं
जो दलित साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रतीक ही नहीं उनके विकास के प्रतिमान हैं.
दलित साहित्य के साहित्यकार वर्णवादी साहित्यकारों से लेखन
में टक्कर ले रहे हैं. दलित साहित्यकारों ने
वर्णव्यवस्था पर कुठाराघात करते हुए एक समाजवादी, बहुजनवादी समाज की कल्पना की.
जिस समय महाराष्ट्र में दलित साहित्य का सृजन हो रहा था, उस समय उत्तर भारत के
हिंदी भाषी क्षेत्र में भी इसकी सुगबुगाहट गीतों और कविता के माध्यम से सुनाई दे रही
थी. इसी दशक में दिल्ली में “भारतीय दलित साहित्य अकादमी” की स्थापना हो चुकी थी
पूरे देश में इसकी शाखाएं प्रशाखाएँ खोली जा रही थीं. इस संस्था ने दलित साहित्य
का आयोजन कर १५ अखिल भारतीय एवं २ अन्तराष्ट्रीय महा सम्मलेन का आयोजन किया था. अब
इस दिशा में सैकड़ो संस्थाएं लगी हुई हैं जिनका मुख्य उद्देश्य दलित साहित्य का
उन्नयन है.
दलित विमर्श अब साहित्यिक संदर्भ में भी अपने यौवन पर है।
शरण कुमार लिंबाले के अनुसार "दलित साहित्य, अपना केंद्र बिन्दू मनुष्य को मानता
है, दलित
वेदना, दलित, साहित्य की जन्म दात्री है। वास्तव में यह
बहिष्कृत समाज की वेदना है।" प्रारंभ में दलित साहित्य की मुख्य विद्या
आत्मकथा ही रही, जो भोगे हुए यथार्थ पर आधारित है। अपने-अपने पिंजरे में मोहनदास नैमिशराय अपने ईद-गिर्द गांव टोले मौहल्ले में अपना बचपन जीते
हुए, उसके पूरे समाज का विहंगावलोकन करते हैं। दलित साहित्य का
इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना कि हिन्दी साहित्य का इतिहास। इस संदर्भ
में यदि संक्षेप में ही चर्चा की जाये तो दलित साहित्यकारों के चर्चित उपन्यास
मुक्तिपूर्व (मोहनदास नैमिशराय),
ठंडी आग (प्रेम कापडि़या), काली रेत (ओम
प्रकाश वाल्मीकि, क्या मुझे खरीदोगे) (मोहनदास
नैमिशराय) रक्त का रिश्ता (डीपी राय) टूटते
संवाद (लघु कथा संग्रह केएस तूफान) आदि
पुस्तकें उल्लेखनीय हैं। काव्य में आदिवंश का डंका (अछूतानंद),
भीमारायण, जगजीवन
ज्योति, झलकारी बाई, शम्बूक काव्य, एकलव्य
खंड काव्य नामक पुस्तक चर्चा में रही हैं।
दलित
साहित्य ने लम्बी दूरी तय कर ली है. प्रभूत मात्रा में लिखा गया साहित्य स्वयं
इसकी गवाही है. अब तक दलित साहित्य की तीन सक्रीय पीढियां एक साथ काम कर रही हैं. हिंदी
दलित साहित्य के प्रथम एवं द्वितीय पीढ़ी के साहित्यकारों में ओम प्रकाश वाल्मीकि, डॉ.
जय प्रकाश कर्दम, डॉ. धर्मवीर, डॉ. तेज सिंह, , मोहनदास
नैमिशराय, डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, एन. सागर, सी.बी.
भारती, डॉ. कुसुम वियोगी, विपिन बिहारी, पारस
नाथ, डॉ. श्योराज सिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान, दयानन्द
बटोही, डॉ. प्रेमशंकर, डॉ. सुशीला टाक भौरे, डॉ.
बी.आर. जाटव, डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर, डॉ. अवन्तिका प्रसाद मरमट, डॉ.
चमन लाल, डॉ. रघुवीर सिंह, डॉ. तारा परमार, डॉ.
एन. सिंह, श्री कंवल भारती, बुद्ध
शरण हंस. तीसरी श्रेणी के प्रमुख लेखकों कवियों में ईश कुमार गंगानिया, ईशकुमार गंगानिया, कुसुम वियोगी, मुकेश मानस, केदार प्रसाद
मीणा, गुरिंदर सिंह आजाद, अनुज लुगुन, कैलाश चंद चौहान, डॉ. पूरन सिंह,
राज बाल्मीकि, पूनम तुषामड़, रजनी अनुरागी, अर्जुन सावेदिया, संजीव चंदन, मुन्नी भारती, मीनाक्षी गौतम के नाम प्रमुख रूप से लिये जा
सकते हैं. अस्मिताओं के सृजन में आहुति देने वाले लोगों का कारवा लगातार आगे बढ़
रहा है.
सवर्ण
साहित्यकारों के घोर उपेक्षा से दलित साहित्यकारों को लगा की हमें अपने प्रतिमान
खुद गढ़ने पड़ेंगे क्योंकि जब कोई रास्ता बंद हो जाता है तो दूसरे रास्ते की तलाश
करनी पड़ती है. इसी क्रम में हिन्दी में श्री मोहनदास नैमिषराय और ओम प्रकाश
वाल्मीकि जैसे लेखकों ने दलित साहित्य के स्वायत्त सौन्दर्यशास्त्र पर विचारात्मक
लेखन किया. दलित लेखक का जोर सदैव ही जातीय समाजशास्त्र पर रहा है और यही
समाजशास्त्रीय विवेक उसके लेखन की पहचान रहा है. सौन्दर्यबोध और छलावे का साहित्य
उनकी नजरों से सर्वथा दूर रहा. मुख्यरूप से स्वानुभूति और सहानुभूति में यहाँ फर्क
नजर आया. दलित रचनाकार का आदर्श आंबेडकर रहे हैं जो सामाजिक व्यवस्था ही नहीं रचना
के ढाँचे को भी तोड़ते हैं. ठीक यही काम दलित साहित्य भी कर रहा है. दलित शब्द का अर्थ - दबाया गया, गिराया गया, दो
फाड़ किया गया, अपमानित, शोषित, पीड़ित, वंचित एवं बहिष्कृत आदि है. दलित शब्द साहित्य से जुड़ जाता
है तो वह दबाये गये, उत्पीड़ित
किये गये, अपमानित किये गये, शोषण किये गये और वंचितों का साहित्य
हो जाता है.
हिंदी के मूर्धन्य
साहित्यकार श्री अशोक वाजपेयी ने दलित साहित्य
के बारे में उद्घोषणा की थी की “ दलित विमर्श ने जो नई प्रश्नवाचकता पैदा
की है, वह हमारे साहित्य समाज और राजनीति के लिए अंततः गुणकर है और वह ऐसी
प्रवृत्ति है जो आगे काफी समय सक्रिय और उर्वर रहने वाली है.[4]सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक शोषण किसी भी रूप में हो एक दिन ज्वाला का रूप ले लेता
है. कहते हैं बारह साल में घूरे के दिन भी बहुर जाते हैं आज यह कहावत दलित साहित्य
पर अक्षरसः घटित हो रही है. जिस स्वर में लोग पहले इसका प्रतिवाद करते थे वही अब
इसका राग सस्वर अलाप रहे हैं. दलित लेखकों
की यह मान्यता है कि स्वयं दलित ही दलित जीवन पर लिख सकता है.हिन्दी के अधिकांश वर्णवादी
लेखकों ने इस बात का गहरा प्रतिवाद किया कि दलित ही दलित लेखन कर सकता है. सवर्णों
साहित्यकारों के इस तर्क को दलित साहित्यकारों ने पूरी तरह खारिज किया कारण, उनका मानना
था कि जिस समाज की दुर्दशा का जिम्मेदार ही सवर्ण और उसका धर्मतंत्र है वह उसकी
तकलीफ के बारे में क्या जानता है और यदि कुछ सहानुभूति रखता भी है तो भी उसका लेखन
द्वैध पूर्ण होगा. यह केवल भारत में ही नहीं हो रहा है, साठ के दशक में अश्वेत
साहित्य को लेकर श्वेत साहित्यकारों ने भी ऐसा ही सवाल उठाया था पर जल्दी ही वहाँ
यह मान लिया गया कि अश्वेत रचनाकार ही अश्वेत साहित्य के प्रतिनिधि हैं. हिन्दी
में अभी यह खींचतान जारी है आज कुछ दलित लेखक भी दबे जुबान से इसका समर्थन कर रहे
है. पर यह किसी भी सूरत में दलित-साहित्य के हित में नहीं है.
सवर्ण लेखक तथ्यों को इतना मरोड़ देने में माहिर हैं कि
उन्होंने कबीर जैसे निर्गुणियों का मंदिर बनवा दिया, भगवान् बुद्ध जैसे लोगों के
अवतार को सिद्ध किया और उन्हें ही भगवान् की पदवी दिला डाली. सामान्यतः लेखक स्वानुभूति
और सहानुभूति के आधार पर लिखता है लेकिन सामाजिक न्याय की शर्त न सहानुभूति से
पूरी होती है न ही स्वानुभूति से. सहानुभूति अक्सर सामन्ती उदारता का ही एक रूप
होती है और सामन्ती उदारता यथास्थिति में किसी बुनियादी परिवर्तन का प्रयत्न नहीं
करती. किसी की स्वानुभूति यह भी तो हो सकती है और होती रही है कि उत्पीड़ित के साथ
जो हो रहा है वह सही हो रहा है. जिन्होंने शूद्रों के विरुद्ध अमानवीय नियम बनाए
वे स्वानुभूति पर ही निर्भर कर रहे थे. यह उनका विश्वास था कि उन्हें अनुभव से
मालूम है कि दलित दुर्दशा का पात्र है. दलित कथाकारों ने उत्पीड़न के कारणों को भारतीय समाज की
संरचना के सवालों से जोड़ते हुए वर्ण और जाति व्यवस्था को वह केंद्रीय कारक माना
जिससे सामाजिक विकास की प्रक्रियाएं प्रभावित होती हैं. पर अगले चन्द बरसों में ही इस स्थिति में एक महत्त्वपूर्ण
परिवर्तन हुआ. डॉ. ओमप्रकाश वाल्मीकि, प्रो. तुलसीराम, प्रो. अग्नेलाल, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, कँवल
भारती, कांचा इलैया, जैसे वरिष्ठ विचारकों ने देश के पूरे समाज की ऐतिहासिक
व्याख्या करते हुए सवर्ण बुद्धिजीवियों के वैचारिक निर्माण को ध्वस्त करना शुरू
किया और यह स्थापना लेकर सामने आए कि देश की संस्कृति बुद्ध, कबीर, महात्मा फुले, पेरियार
और अम्बेडकर की विचार भूमि में निर्मित हुई है. सवर्ण और दलित बुद्धिजीवियों के
बीच इसी बिन्दु पर गहरे टकराव पैदा हुए.
दलित साहित्य के साथ भी नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में
इसी तरह का सुलूक होता रहा. साहित्य की दुनिया यह मान कर चलती रही कि साहित्य ऐसी
कोई चीज है ही नहीं जिसकी तरफ ध्यान दिया जाय. इसके बाद उत्तर भारत विशेषकर हिन्दी
क्षेत्र में दलित आन्दोलन ज्यादा तीव्र हुआ. दलित सामाजिक राजनीतिक आन्दोलन के तेज
होते ही बुद्धिजीवी समाज में दलित समस्या को लेकर बहस उठी. इस समय तक दलित
बुद्धिजीवियों का वैचारिक आन्दोलन मजबूत हो रहा था. दलितों के मुद्दे पर अधिकांश सवर्ण
बुद्धिजीवियों का रवैया उसमें खामियाँ खोजना और उसे ख़त्म करना था. विगत दशकों में प्रकाशित दलित साहित्य को
देखने पर यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है की दलितों ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा
है. चाहे वह जयप्रकाश कर्दम कृत ‘छप्पर’ हो या प्रेम कपाड़िया कृत ‘मिट्टी
की सौगंध’, सूरज प्रकाश की ‘जस-तस नई सबेर’ हो या
कौशल्या बैसंती कृत ‘दोहरा अभिशाप’ या मोहनदास नैमिशराय कृत ‘वीरांगना
झलकारीबाई’ या एसआर हरनोट कृत ‘हिडिम्ब’.
परंपरा से जुड़े सवालों को उठाते हुए भी इन उपन्यासों में दलित समाज के सवाल भिन्न
नज़रिए से उठाए गए हैं और दलित समाज के शोषण और उत्पीड़न की प्रक्रिया को आर्थिक से
अधिक भारतीय समाज की जटिल संरचनाओं में से एक वर्ण और जाति से जोड़ा गया है. सम्पूर्ण
दलित वांग्मय में वही अभिव्यक्त हुआ जो उन्होंने भोगा जाना था जो अभी तक उभर कर
नहीं आ पाया था.
समय और सन्दर्भ के अनुसार
दलितों ने अपने समीक्षा ग्रन्थ बनाये. उन्होंने यह जान लिया लीटर और मीटर के तत्व
अलग हैं. दलित सौंदर्यशास्त्र ने नई समीक्षाओं को जन्म दिया. दलित सौन्दर्यशास्त्र
पर रमणिका गुप्ता ने लिखा था-‘दलित साहित्य ने नए बिम्ब गढ़े, पौराणिक मिथकों की
भाषा बदल डाली. नए मिथक बनाए, गौरवान्वित झूठ और आस्था पर
चोट की और चमत्कार को तोड़ा. यह वर्तमान साहित्य के लिजलिजेपन और बासीपन तथा
एकरूपी रसवादी प्रणाली से भिन्न है और चमत्कारी कल्पनाओं से बिल्कुल अलग होता है.
इसके दायरे में अंधविश्वास, भाग्य, पूर्वजन्म
के कर्म, धर्म तथा भगवान नहीं आते. ओमप्रकाश वाल्मीकि का
कहना है-‘दलित साहित्य में अनुभवों से उत्पन्न आशय निष्ठा ही
अधिक है. पारम्परिक साहित्य ने जिसे त्याज्य और निषिद्ध माना है, दलित साहित्य ने उसे अपने अनुभवों के आधार पर प्रमुखता दी है. उन अनुभवों
की अभिव्यक्ति के मूल्यांकन के लिए पारम्परिक समीक्षा के मानदण्ड गलत निष्कर्ष
देंगे अब उसके शब्द नगाड़े की तरह
बोल रहे है. इसकी चेतना सम्पूर्ण भारत में हिंदूवादी उत्पीड़न के विरुद्ध है जिसे
हिंदी के कुछ वरिष्ठ आलोचक “गुस्सा” और “नफरत” का नाम देते हैं. आलोचक नामवर सिंह
ने अपने एक परिसंवाद में कहा की इसकी कुछ विशेषताएं हैं-सारी सवर्ण व्यवस्था के खिलाफ
गुस्सा और उसको तोड़कर एक नइ व्यवस्था के निर्माण के लिए पहल. लेकिन वह गुस्सा है
फिलहाल! गुस्सा और नफरत उसका नया कार्यक्रम है [5]
दलित
कथा लेखक/संपादक ‘दुनिया का यथार्थ (रमणिका गुप्ता),’ पुटुस के फल (प्रहलाद
चंद दास) चार इंच की कमल (डा केके
वियोगी) सलाम (ओम
प्रकाश वाल्मीकि) सुरंग,
कफनखोर, आवाज टूटता
वहम, जुड़ते
दायित्व, अनुभूति के घेरे, अपमान,बुधिया
की तीन रातें आदि प्रमुख हैं। जब, दलित समाज अनपढ़ था तब विवाह उत्सव पर स्वांग/नोटंकी आदि का आयोजन होता था। सबसे पहले स्वामी अछूतानंद ने ‘रामराज्य
का न्याय’ और ‘मायाराम’ नामक नाटक लिखे। स्वतंत्रता के पूर्व इलाहाबाद
में नंदलाल जैसवार ने ‘इन्साफ’ नाटक लिखा। कठोती में गंगा (डा एन सिंह), अछूत का बेटा, धर्म के नाम पर धोखा, तड़प, मुक्ति, वीरांगना
ऊदा देवी पासी, प्रतिशोध वीरागंना झलकारी बाई धर्मपरिवर्तन, अन्तहीन
बेडि़या (चालीस नाटक एकांकी संग्रह) माता प्रसाद मित्र द्वारा लिखे गये। एकलव्य के
जीवन पर आधारित नाटक, शोषितों के नाम संतोष का पैगाम भीम सेन संतोष
ने लिखा। ललई सिंह यादव के नाटक ‘शंबूक वध’ ने तहलका मचा दिया। संघर्षशील जीवन में भोगा
गया यथार्थ, गरीबी का दंश, तिरस्कार आदि वेदना को अनेक दलित
लेखक/लेखिकाओं ने अपने आत्मकथा लेखन से
उद्घाटित किया है। ‘मैं भंगी हूं’ (भगवान दास) अपने-अपने पिंजरे (मोहनदास
नैमिशराय) दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसन्ती) जूठन (ओमप्रकाश वाल्मीकि) उठाईगीर
(लक्ष्मण गायकवाड) झोपड़ी
से राजभवन (माताप्रसाद) घूंट
अपमान के (सूरजपाल) मेरी मंजिल
मेरा सफर (डा डी आर जाटव) मेरे गुनाह (श्रवण
कुमार) हमारा जीवन (बेबी कांबले) सहित
श्यौराज सिंह बेचैन आदि की आत्मकथाएं प्रमुख हैं।
हिन्दी
साहित्य की अन्य विधाओं में दलित आलोचना ग्रंथ, दलित शोध ग्रंथ, समीक्षात्मक
ग्रंथ भी लिखे गए हैं। दलित साहित्य अबतक ठीक दिशा
की ओर चल रहा है. समकालीन दलित साहित्य और साहित्यकार ने भूमंडलीकरण और अन्य
सवालों का सामना डटकर किया है. दलितों की लोक धर्मिता, लोकधर्मी संस्कृति ही इन
सवालों का जबाब हो सकती है. उन्हीं की संस्कृति अब बड़े रूप में हमारे सामने आएगी.[6]
विगत एक दशक से भूमंडलीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की जो हवा चली है, उसने दलितों के
जीवन में आने वाले परिवर्तनों को प्रभावित कर दिया है. आज स्वास्थ्य, शिक्षा और
उद्योगों को सरकार तेजी से निजी हाथों में दे रही है, इससे लगता है सार्वजनिक
क्षेत्र के सारे उपक्रम बंद हो जायेंगे. यह पूरी प्रक्रिया आरक्षण के विरोध में है
यहाँ सरकार की नीति यह है की न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. जो पहले सीधे मुंह इसकी मुखालफत करते थे आज
चुपके से वे इसी का राग गा रहे हैं. अपनी नाक भौह सिकोड़नेवाले मठाधीश यह कहते हुए
देखे जा रहे हैं की यह समय परिवर्तन का है. परिवर्तन पहले समाज में आता है फिर
साहित्य में. हालाँकि दलित साहित्य को इन चतुर फिरंगियों से सावधान रहने की जरुरत
है इन्हें लड़ाने, फूट डालने की कला मालूम है.
दलित आन्दोलन की गूंज विभिन्न भारतीय भाषाओँ के साहित्य में साफ दिखाई देती
है. इस कड़ी में दलित आत्मकथाएं साहित्य का आधार बनकर जाति-पाँति मूलक हिन्दू धर्मं
की अन्यायपूर्ण व्यवस्था की पोल बड़ी सहजता से खोलती है. आत्मकथा के अतिरिक्त कथा
साहित्य में भारतीय जाति व्यवस्था पर गहरी चोट की गई है. इस कड़ी में कैलाश चंद
चौहान का अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ उपन्यास “सुबह के लिए” दलित जीवन के दुखते
अनुभवों को शब्दबद्ध करने का सार्थक प्रयास है. उपन्यास की कथा गाँव से शुरू होकर
शहर तक जाती है. जाति का जहर सब जगह फैला हुआ है. इस मामले में शहर गाँव से पीछे
बिलकुल नहीं हैं. उपन्यास का नायक विक्रम शिक्षा को ही अपना हथियार बनाता है.
जातियों की जकडबंदी रचना में मूल में है. डॉ. आंबेडकर का जीवन हर जगह नायकों को
मुक्ति की राह दिखता है. पारंपरिक पेशों में धकेल दिए गए दलित चाहकर भी मुक्त नहीं
हो पा रहे हैं. वे जहाँ भी जाते हैं जाति उनका पीछा किये हुए आ जाती है. यहाँ प्रेमचंद
के महाजनों की छवि दूसरे रूपों में व्यक्त है.
वर्चश्वशाली शक्तियां यह कभी नहीं चाहती हैं कि उनका किला कमजोर हो. उन्होंने
अभी तक अवर्णों को उपदेशों में उलझाये रखा और आगे भी इसी साजिस को बरक़रार रकना
चाहते हैं इस बात की पुष्टि नामवर सिंह द्वारा महात्मा गाँधी अन्तराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय में दिए गए उनके व्याख्यान से पता चलता है. आज उनका तिलश्म टूट रहा
है और अचानक उनके बहुत बड़े अनुयायियों की निद्रा भंग हो गई है. उनका कहना है की
जहाँ तक दलित साहित्य के भविष्य का प्रश्न है, अब हिंदी के लगभग सभी विद्वान उसके
उज्जवल भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं.” संतान चाहे कुत्ते की हो, बिल्ली की या
मनुष्य की अपनी पुरानी पीढ़ियों से तेज और चालाक होती है. परिवर्तन की एक धुरी है
समकालीनता जो समय के आर-पार देखती हुई स्वयं को संदर्भित बनाये रखती है. यह
प्रकृति का नैसर्गिक वरदान है. समय स्वयं ही अपना इतिहास लिखता है और हम उसके
सांचे में फिट होते जाते हैं. सबल पीढियां सदा अपना इतिहास लिखाती हैं और निर्बल
हवेली की दीवारों में अपनी आहुति दे दफ्न हो जाते हैं. संसार में बहुसंख्यक का
इतिहास गायब है और यदि आप इसकी पड़ताल करेंगे तो बहुत ही रोचक तथ्य सामने निकल कर
आयेंगे. समकालीनता स्वयं को पुरातनता से संपृक्त रखती है क्योंकि बिना जड़ के कोई
पेड़ कैसे खड़ा रह सकता है. समकालीन सन्दर्भ और दलित आक्रोश को अभिव्यक्त करती कर्मानंद आर्य की कविता है की “अगली बरसात से पहले / बरसेंगे
हमारे हाथ / मशाल की तरह जलेंगी हमारी भुजाएं / खेत, खलिहान, गलियों में / जब वे फैले
होंगे / एक सूरज का गला पकड़ बाहर खींच लायेंगे / क्या हमारी हंसियों
की धार में तुम्हारी गर्दन नहीं समां सकती / क्या तुम्हारे जूते हमारे पांवों में
नहीं आ सकते .” आक्रोश अभी ख़त्म नहीं हुआ है बस आज आग की यह धारा लगातार
पीढ़ियों में गुजरती जा रही है.
समकालीन सन्दर्भ में
दलित साहित्य ऐसी अग्नि है जिसे जितना बुझाने की कोशिश की जा रही है वह उतने ही
उन्नत रूप में फैल रही है. निशंदेह सृजनशील अल्पसंख्यक सवर्णों का ध्यान दलित,
स्त्री, आदिवासी साहित्य की तरफ झुका है. आज इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा
नहीं है, दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य, मात्रा और गुण दोनों में ही काफी आ गया
है इसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है.[7]
सवर्ण साहित्यकारों की मकड़जाल का बहुत ही यथार्थ चित्रण वाहरु सोनवडे की इस कविता
में मुखर हुआ है : यह कविता अपने यथार्थ से सम्पूर्ण दलित साहित्य की पीड़ा को
अभिव्यक्त करती है : हम स्टेज पर गए ही नहीं / जो हमारे नाम पर बनाई गयी थी /हमें बुलाया भी नहीं गया/ उंगली के इशारे से ही हमारी जगह
हमें दिखा दी गयी/ हम वहीँ बैठ गए[8].
यह कविता सवर्णवादी लेखकों के मुखौटे को रेखांकित करती है. समकालीन हिंदी साहित्य में तीन ऐसे विषय हैं जो कवियों की चिंता में रहे हैं
जातिवाद, साम्प्रदायिकता और स्त्रियों की स्थिति. आज की दलित कविता में
वर्णव्यवस्था और जाति व्यवस्था के खिलाफ स्वर मुखर हुआ है. कर्मानंद आर्य की कविता
है “ मेरे
हाथ “ उनकी इस कविता में आज का दलित साहित्य पूरी चुनौती के साथ उपस्थित होता है.:
मेरे हाथों में आज कलम है, तलवार है/ तराजू है, ताबूत की कुछ कीलें / हम मुग़ल नहीं, तलवारों
वाले बौद्ध हैं / हम अहिंसा का मतलब समझ गए हैं / पकड़ ली गई
है तुम्हारी साजिस[9].
बहुत सारे युवा
कवियों ने जी ढंग से इसको अभिव्यक्त किया है वह पहले की कविता में प्राप्त नहीं होता
है. मुकेश मानस, पूनम तुशामड, रजनी अनुरागी, रजनी तिलक, जैसे कवियों ने दलितों,
वंचितों की पीड़ा को मुखर स्वर दिया है. नए दलित कवि समाज को जाति-पाँति में बंटे
होने का विरोध कर रहे हैं. मुकेश मानस की प्रारंभिक कविताओं में इसी प्रकार के
स्वर दीखते हैं. पूनम तुशामद की कविता “दो शख्स “ में इसी सचाई को उजागर किया गया
है. पूनम की एक दूसरी कविता है “वह आती थी” जो एक भंगी स्त्री के समाज से बहिष्कृत
होने के यथार्थ को अभिव्यक्त करती है. कोई भी गैर दलित आजादी के साथ वर्षों बाद भी
मानसिक तौर पर तैयार नहीं है की एक भंगी स्त्री भी उसके ही समाज का अनिवार्य अंग
है. उनकी कविता में दलित उत्पीड़न की अनेक स्थितियों का वर्णन है. वे लिखती हैं - मुझे
नहीं चाहिए मुट्ठी भर आसमान / मुझे चाहिए मेरे हिस्से की मिट्टी / जिस पर सदी दर
सदी / पसीना बहाया मैंने / और फसल रही तुम्हारी. दलित साहित्यकार रजनी अनुरागी की
कविताओं का उत्स भी वही है परन्तु उनकी निगाह संघर्षों की ओर अधिक जाति हैं जो
सिर्फ जाति के दायरे तक महदूद नहीं हैं. “जब भी योग्यता की बात हुई” मजदूरों की बस्ती”
“जन ज्वार “नए ज़माने का बाज़ार” जैसे कविताओं में उन परिवर्तनों की छवियाँ दर्ज हैं
जो विषमता को बढ़ा रही हैं. प्रेम और आकांक्षा का बहुत ही मुखर स्वर उनकी कविता में
व्यक्त हुआ है. “हमारी कविता” में वे बहुत मार्मिक ढंग से कहती हैं : तुम कल्पना
के घोड़े पर सवार / लिखते हो कविता और कविता / रोटी बनाते समय जल जाति है अक्सर / कपड़े धोते हुए पानी में बह
जाती है कितनी बार.
इसी तरह मुकेश मानस
कवितायेँ और अधिक प्रौढ़ हैं. नए युग के स्पार्टाकस, हमारा इनकार, हत्यारा, वर्तमान
हैं हम, आने वाले वक्त में आदि कविताओं में दलितों के जीवन के वे जज्बात मुखर हुए
हैं जिन्हें पूर्व के कवियों ने जगह नहीं दी थी. उनकी एक कविता “वर्तमान हैं हम” अतीत
में झाकने का आग्रह करती हुई कहती है की : इतिहास वहां से शुरू करो / जहाँ हम थे
अपने समूचे जिस्म और पुरे व्यक्तित्व के साथ / जिन्हें हर लिया था तुमने अपनी
कुटिलताओं से. इस
प्रकार यह सामाजिक समता का साहित्य है. दलित साहित्य भाग्यवाद, पुनर्जन्म, अंधविश्वास, अवतारवाद, कर्मकाण्ड, मूर्तिपूजा और अंध परम्परा का विरोधी है. यह विज्ञान संबत
बातों का समर्थक है. विश्व बंधुत्व स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समता, न्याय
सेक्युलरिज्म को मानता है. रंग, वर्ण, जाति, लिंग, क्षेत्रावाद और पूंजीवाद का विरोधी है. दलित साहित्य का
केन्द्र बिन्दु मनुष्य है.
रजनी अनुरागी में अनुराग और विद्रोह दोनों का विचारोत्तेजक
स्वर है. उनका कविता संग्रह 'बिना किसी भूमिका के' पहला कविता संग्रह है, जिसमें कबीर की तरह कविता के
प्रतीक, बिम्ब और रूपक उस परिवेश से आते
हैं, जिसमें एक आम स्त्री सुबह से शाम
तक खटती मरती है -- 'मैं जानती हूँ कि जब तक भी जिन्दा हूँ, कटघरे में हूँ, क्योंकि मैं खुद ही अपनी दीवार हूँ.' रजनी अनुरागी ने अपनी कविताओं में इसी कटघरे को तोड़ा है, जिसकी दीवार स्त्री खुद है. कबीर
का पद है-'जो जो करूँ सो पूजा.' और रजनी कहती है कि स्त्री जो जो
करती है, वही कविता है. यथा--' तुम कल्पना पर होकर सवार/ लिखते हो कविता/ और हमारी कविता रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर/ कपड़े धोते हुए/ पानी में बह जातीपा कितनी ही बार…. अगर पढ़ सको तो पढ़ो हमको ही/हम औरते एक कविता ही तो हैं.
यदि देखा जाए तो दलित चेतना को इस
जीवंत स्तर तक पहुंचाने के लिये महात्मा ज्योति राव फुले (सन् 1827-1890) एवं सावित्री बाई फुले (1831) जैसे
समर्पित दंपत्ति का योगदान विस्मृत नहीं
किया जा सकता। महात्मा फुले ने सन् 1848 में पहली कन्या पाठशाला खोली। सन् 1851 अछूतों
के लिए पहली पाठशाला खोली। सन् 1864
में विधवा
विवाह संपन्न कराया। सावित्री बाई फुले ने पहली भारतीय शिक्षिका होने का गौरव
पूर्ण स्थान भी प्राप्त किया। आंध्र प्रदेश के कार्मी गांव की
आशम्मा का नाम भी दलित उत्थान में प्रमुख है। महाराष्ट्र के कोल्हाटी समाज में नाच
गाने वाली औरतों में काम करने वाली शांतिबाई, टीचर बनना चाहती थी, लेकिन
सामाजिक प्रतारणाओं के कारण उसका सपना पूरा नहीं हो सका, लेकिन
उसका बेटा किशोर शांताबाई काले, पढ़-लिखकर डाक्टर बन गया। लक्ष्मण माने
का आत्मकथात्मक उपन्याय ‘ऊपरा’ हिन्दी में ‘पराया’ नाम से
प्रकाशित हो साहित्य आकदमी पुरस्कार पा चुका है। दलित लेखन, चाहे वह
किसी भी विद्या के रूप में सामने आया है वह सवर्ण समाज पर जारी श्वेत पत्र सा लगता
है। दलित प्रतिबंधों, अवरोधों, निषेधों और वचनाओं के बीच जीने का सनातन
अभ्यस्त रहा है, लेकिन उसका आक्रोश लेखनी से सामने आया और
जनमानस उद्वेलित हुआ। यदि कुल मिलाकर दलित विमर्श पर चर्चा करते समय सामाजिक, राजनीतिक
एवं साहित्यिक संदर्भ तलाशें जायें, तो सभी का मूल स्वर मुख्य धारा से अलग रहने की
छटपटाहट अभिव्यक्त करता है। लेकिन इस दिशा में आज तक संपन्न हुए सभी प्रयास निकट
भविष्य में स्वयं ही मुख्य धारा बन जाने की दिशा में आश्वस्त करते हैं और यह
आश्वस्ति, दलित चेतना के संघर्ष जीजीविषा सहित उनकी
संकल्पशक्ति से बल प्राप्त करती है।
जिसमें साहस है
वही रूक पायेगा
बैर लेकर, वर्जनाओं के करीब।
बैर लेकर, वर्जनाओं के करीब।
अस्मिताओं की आभा से ओत-प्रोत युवा
कवि अनुज लुगुन की एक कविता सबका ध्यान अपनी ओर
खींचती है.“शहर के दोस्त के नाम पत्र” हमारे जंगल में लोहे के/ फूल खिले
हैं / बॉक्साईट के गुलदस्ते सजे हैं/ अभ्रक और कोयलातो/थोक और खुदरा दोनों भावों से मण्डियों में रोज सजाए जाते हैं / यहाँ बड़े-बड़े बांध भी
फूल
की तरह खिलते हैं/ इन्हें बेचने के लिये सैनिकों के
स्कूल खुले हैं,/ शहर के मेरे दोस्त / ये बेमौसम
के फूल हैं / इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती / अपने जूड़े के लिये गजरे/ मेरी
माँ नहीं बना सकती / मेरे लिये सुकटी या दाल. युवाओं का
स्वस्थ मानसिक विकास हो इसके लिए हमारे देश में कोई कार्यक्रम नही है. ना तो खेल
के मैदान है, ना
सास्कृतिक ग्रुप, ना लाईब्रेरी है ना ही सामुदायिक विकास के सामान. सच तो यह
है कि एक बहुत बडा वर्ग यानि, गरीब युवा वर्ग के पास अपने लिये समय भी नही है, जहां वह
अपने को किसी भी रुप में अभिव्यक्त कर सके.
अनीता भारती की पुस्तक 'समकालीन
नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध ' हिंदी साहित्य में दलित नारीवाद की जमीन तैयार करती है.
हिंदी में दलित नारीवाद पर यह पहली पुस्तक है. यह पुस्तक दलित नारीवाद के
सिद्धांतों को रखने के अलावा यह समझाने का प्रयास करती है कि कैसे दलित महिलाओं का
लेखन समकालीन स्त्रीवादी लेखन से अलग है. "यथास्थिति
से टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कहानियां" - (संपादक अनिता भारती, बजरंग बिहारी तिवारी) का प्रथम संस्करण हाथों हाथ बिक गया
है. इसमें हमारे तेईस चर्चित युवा रचनाकारों की कहानियां संकलित है : टेकचंद, हेमलता महिश्वर, राजबाल्मीकि, सुमित्रा
महरोल, अल्पना मिश्रा, रंजना जायसवाल, भागीरथ
सिन्हा, ज्योत्स्ना, रजनी दिसौदिया, संदीप मील, कौशल
पंवार, केदार प्रसाद मीणा, कृष्णकांत, वाजिदा तबस्सुम, पूनम
तुषामड, सुधीर सागर, संजीव चंदन, कैलाश
वानखेडे, अर्जुन सवेदिया, रजत
रानी मीनू, पूरन सिंह, रतन
सिंह गौतम, अनिता भारती. आज किताब का रोना
रोने वाले प्रकाशक दलित साहित्य बेचकर बहुत मोटा धन कम रहे हैं. इस साहित्य में जहाँ पीड़ा की
चीत्कार होती है वहीं व्यवस्था पर रोषपूर्ण प्रतिकार और उसके उपचार के लिए कड़वी
घूट के समान है. इस कड़वी घूँट से कुछ लोग तिलमिला जाते हैं किन्तु अब अधिकांश लोग
इसके उद्देश्यों से सहमत होते दिखायी पड़ते हैं.
दलित साहित्य में यों तो आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पक्षों को उजागर किया जाता है लेकिन
इसमें सर्वाधिक बल सामाजिक विषमता की खाइयों को पाटने पर जोर दिया जाता है. वर्ण
व्यवस्था से उत्पन्न जाति व्यवस्था पर चोट कर समाज में समता की स्थिति पैदा करने
का प्रयास किया जाता है. दलितों
का सारा दुःख अनुज लुगुन अपनी कविता में इस तरह व्यक्त करते हैं -मैं एक बूढा शिकारी घायल और आहत / लेकिन हौसला
मेरी मुठिट्यों मे है और / उम्मीद हर
हमले में / मैं एक आखिरी गीत अपनी धरती के लिये गाना चाहता हूँ.
डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक संघर्षों से यह प्रेरित है. दलित
साहित्य तथागत गौतमबुद्ध की इस बात को भी मानता है कि जिसमें उन्होंने कहा था कि
किसी ग्रन्थ में जो लिखा है उसे सही मत मानो, परम्परा
में कोई बात चली आयी है उसे मत मानो, महापुरुषों
ने कहा है उसे सही मत मानो, मैं
भी जो कह रहा हूं उसे भी सही मत मानो बल्कि अपनी बुद्धि, विवेक और तर्क से जिस बात को सही समझो उसे ही सही मानो और
उसी पर चलो.कुछ समय पहले दलित साहित्य को लोग अलगाववादी और जातिवादी साहित्य मानते
थे इसलिए दलित साहित्य का विरोध होता था, किन्तु
अब धीरे-धीरे लोगों की इस धारणा में परिवर्तन आता जा रहा है. क्योंकि जब तक समाज
में दलित साहित्य की स्थिति को भी नकारा नहीं जा सकता है.
दलित
साहित्य में अन्यायों के विरुद्ध लिखा जाता है इसलिए इसकी भाषा कटु और चुटीली भी
होती है कहीं अपमान से उत्पन्न प्रतिकार की भावना होती है इसलिए कुछ लोगों को यह
पसंद नहीं आती और वे इसे साहित्य की श्रेणी में नहीं मानते. दलित साहित्य भुक्त
भोगियों का साहित्य है. जाके पांव न फटी बेवाई, वह
का जाने पीर पराई. पीड़ा कांटा चुभे व्यक्ति को देखने वाले को नहीं हो सकती. उसके
प्रति उसकी सहानुभूति तो हो सकती है किन्तु पीड़ा नहीं. मराठी, गुजराती, कन्नड़, पंजाबी और मलयालम में पर्याप्त मात्रा में साहित्य लिखे जा
रहे हैं. हिन्दी साहित्य में भी दलित साहित्य की तरफ रूझान बढ़ रही है. हिन्दी की
कई पत्रिकाओं ने दलित साहित्य पर अपने विशेषांक निकाले हैं. इस समय देश के विश्व
विद्यालयों में अनेक छात्र दलित साहित्य पर शोध कार्य कर रहे हैं कुछ को तो इस
कार्य पर एम.फिल् और पी-एच.डी. की उपाधि भी मिल चुकी है.
दलित
साहित्य की पहचान उसकी सरल भाषा है. साहित्य में जो लिखा जाता है साधारण लोग भी
उसकी भावना से अवगत हों इसलिए इसकी भाषा में क्लिष्टता, चमत्कारिता, छंद
एवं अलंकार का अभाव होता है. अभी हाल ही में दलित सन्दर्भों को रेखांकित करती हुई
एक विचारणीय पुस्तक प्रकाशित हुई है. ‘यथास्थिति से
टकराते हुए दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं’ पुस्तक में दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं है. इस
पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें 65 कवियों को एक साथ लिया गया है. जिनमें महिलाएं ज्यादा है
और नए कवि भी बहुत संख्या में शामिल हुए है. रजनी अनुरागी की ‘माँ’ कौशल पवार की ‘देखो देखो वह आ
रही है’ और अनिता भारती की ‘इतिहास’ कविता बहुत अच्छी और गहन संवेदना से पूर्ण है. नई स्थापनाओं-प्रतिस्थापनाओं
का गहरा चित्रण दलित साहित्य के उत्तरोत्तर विकास को रेखांकित करता है. इसमें
शामिल कविताओं में नया सौन्दर्य और चेतना दिखाई देती है. युवा कहानीकार और फिल्म
समीक्षक उमाशंकर सिंह के अनुसार आज कहीं भी साहित्य से लेकर समाज में भी दलित
स्त्रियों की करूणा, व्यथा किसी को
दिखती नहीं है इस मामले पर सबको सांप सूंघ जाता है.
यह स्वयं में विशिष्ठ है कि यह किताब आदिवासियों और दलित महिलाओं पर केन्द्रित
है और उनकी गहन पीड़ा को आयतन प्रदान करती है. कविताएँ स्त्रियों के सामाजिक-सांस्कृतिक
पक्ष पर खुलकर बात करती है. आज सिर्फ दलित स्त्रियों, साहित्यकारों को यथास्थिति
से टकराने का सवाल नही है बल्कि सभी को यथास्थिति से टकराने की जरूरत है. अनुज
लुगुन की कविता ऐसी ही कविता है जो सवाल पूछती है कहां है वह अनेकता में एकता.
दलित कविता ‘अनुभूति की
प्रामाणिकता’ की बात करती है. ‘काला रंग’ इन कविताओं में दिखाई पड़ती है जो जाति का प्रतीक बना है.
वास्तव में
औपनिवेशिक साम्राज्यवादी भारत और उससे मुक्ति के लिए किए गए संघर्ष के दौरान
पेरियार, अंबेडकर, गांधी,
भगतसिंह जैसे विचारकों ने सामाजिक असमानता के सवालों को उठाते हुए
विचारधारा की दुनिया में जिस सामाजिक न्याय की परिकल्पना की थी, उसे दलित समाज पर केंद्रित उपन्यासों में दलित समाज के उत्पीड़न के प्रसंग
से जोड़कर साफ तौर पर देखा जा सकता है. इसलिए ये गैर-दलितों द्वारा लिखित उपन्यासों
से इस मायने में अलग हैं कि वे समन्वय की नहीं, संघर्ष की
बात करते हैं, क्योंकि उनके साथ अन्याय हुआ है. उनके प्रसंग
में ईश्वर भी न्याय नहीं करता है. इसलिए ये उस संघर्ष की बात करते हैं जो दलित
समाज को वर्ण व्यवस्था से मुक्ति देगा, उसे ज्ञान और सत्ता
की प्रक्रिया से जोड़ेगा, एक बेहतर समाज का निर्माण करेगा. यह
एक महत्वपूर्ण बात है, जो पारंपरिक उपन्यासों से दलित
उपन्यासों को अलग करती है.
कभी-कभी सच के लिए भी लड़ना पड़ता
है. विगत वर्षों में दलित साहित्य पर बहुत आक्षेप भी लगाये जाते रहे हैं. हिंदी के
नामचीन साहित्यकारों ने जो वर्णवादी साहित्यकारों के प्रमुख और प्रवक्ता हैं ने
पुरजोर इसका विरोध किया. उन्होंने कहा की दलित लेखन साहित्य नहीं बयां है. लोगों
ने कहा की यह अविधा का साहित्य है इसलिये मान्य नहीं है उच्च साहित्य तो व्यंजना
में होना चाहिए. मुख्यतः सवर्ण लेखकों ने कई बड़े सवाल उठाए पहला सवाल दलित
साहित्य के सौन्दर्य और रचना कौशल को लेकर उठाया गया. पहले की तरह लोगों ने लीटर
को मीटर से नापने की कोशिश की. कहा यह गया कि दलित रचनाकार शिल्प और रचना सौन्दर्य
की दृष्टि से सफल नहीं है. दलित साहित्य दिनों-दिन युवतर होता जा रहा है. यह पीढ़ियों
के दर्द से मुक्ति की पयाम ढूढ़ती राह है. यहाँ आगाज भी है और अंजाम भी. दलित
साहित्य के प्रत्येक विधा में चाहे वह आत्मकथा हो, कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक या
अन्य गद्य विधायें हों अपनी सशक्त रूप में अवतरित हुआ है. विद्रोह की धार
दिनों-दिन तेज हुई है. साहित्य समाज का दर्पण होता है. समकालीनता समाज के उस दर्पण
में अपना प्रतिबिम्व देखती है.
*डॉ. कर्मानंद आर्य
असिस्टेंट प्रोफेसर ,
भारतीय भाषा केंद्र , बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय
पटना.
मो. ८०९२३३०९२९
[1] अंतिम फ्लैप से, दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन.सिंह,
वाणी, दिल्ली
[2]प्रस्तावना, भारतीय दलित साहित्य का
विद्रोही स्वर, विमल थोरात, सूरज बड़त्या, भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली
[3] दलित साहित्य के प्रतिमान, पेज २३, डॉ, एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
[4] अंतिम फ्लैप से, दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन.सिंह,
वाणी, दिल्ली
[5] नया पथ, अंक २६, १९९८, नाइ दिल्ली
[6] अंतिम फ्लैप से, दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन.सिंह,
वाणी, दिल्ली
[7] हंस, मासिक, अगस्त २००४, पेज-१९४-१९५
[8] फेसबुक से साभार